सोमवार, 16 अप्रैल 2012

वो लम्हे

सोचता हूँ दिन रात
कैसे तुमसे कहूँ अपनी बात
हर तरफ पहरे हजार
हर  राह में खड़ी एक दीवार
तोड़ सकता हूँ हर पहरे को
टकरा सकता हूँ हर दीवार से
मगर मजबूर हूँ हर बार
हार जाता हूँ अपने ही प्यार से
और उन्ही तन्हाइयों में
जी रहा हूँ अब भी मैं
जो ग़मो  का सैलाब हैं
जिनमे जज्बातों का तूफान है
हर लम्हा गुजरता है मुश्किल  से
हर पल इक घमासान है
मगर,
ये मुश्किलें भी सुकून देती हैं
कई ख्वाब  इनके मेहमान हैं
और
इन्ही तन्हाइयों में
 मैं
 सपने देखता हूँ
ख़्वाबों को दिल में बसाता हूँ 
और उन्हें ख्यालों से सजाता हूँ 
ये टूटते हैं , बिखरते हैं
और खो  जातें  हैं  कई बार
मगर ,
मैं इन्हें ढूढता हूँ , जोड़ता हूँ 
और इन्हें सजोता हूँ हर बार
ये लम्हे 
मुझे ख़ुशी देते हैं 
मैं इन्हें शायद हमेशा याद रखूँगा
मेरे ख्वाब, जो मेरी जिन्दगी हैं
मैं इन्हें हरगिज
किसी भी हाल में बिखरने नहीं दूँगा





कोई टिप्पणी नहीं: