गुरुवार, 20 मई 2010

सोचता हूँ कुछ लिखूं ,

सोचता हूँ कुछ लिखूं ,
मगर क्या !
तुम्हें सबसे खुबसूरत लिखूं 
नहीं ये तो सच नहीं है,
हाँ मगर ये सच है 
तुम्हारे जैसा भी कोई नहीं है 
पहले सोचा की तुम चाँद की तरह हो 
फिर उसे देखा 
मगर उसमे तो दाग है
फिर सोचा की माहताब हो
उसे छुआ 
उफ़ उसमे भी आग है
मैं आगे बढ़ा
तो लगा तुम गुलाब हो
वह भी कोमल था
तुम सा ही शीतल था
मुझे यकीं हो रह था
पर ! अगले ही पल
कुछ
हाथों में चुभ रहा था
नहीं तुम गुलाब नहीं हो सकती
हरगिज नहीं फिर ?
क्या आसमाँ से उतरी परी
वही खूबसूरती, वही भोलापन,
वही जादू है तुममें, वही चुलबुलापन
पर परी तो कल्पना है !
क्या तुम भी?
नहीं हरगिज नहीं
तुम! तुम तो मेरी हकीकत हो
या यूँ कहूँ तुम ही मेरी हकीकत हो॥
ना तो तुम चाँद हो, ना आफ़ताब हो
ना तुम परी और ना गुलाब हो
तुम बस मेरा ख्वाब हो
वो ख्वाब जो देखा है मैंने
जागते और सोते हुए
हँसतें और रोते हुए
जिन्दगी के सपने सजाते हुए
तुमको अपना बनाते हुए
सच, ये सपने बहुत खुबसूरत हैं
बस इनको तुम्हारी जरुरत है
तुम बोलो,
क्या ये सपने सच होंगे कभी
हम दोनों,
एक दुसरे के होंगे कभी ॥