शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

एक दिन मैंने सोचा,
क्यूँ ना जिया जाय ?
दिल हमें भी दिया है खुदा ने ,
फिर मुर्दों सा क्यूँ रहा जाय?
निकले चौराहे पर
जिन्दगी जीने के लिए
कुछ यार मिल गए! बोले
चल मैखाने ,पीने के लिए
हमने सोचा !
इंसान जब पैदा होता है
तो पीता है, हम भी पीयेंगे
फिर इन्हीं दोस्तों के संग,
खुलकर जियेंगे
जम कर पिया , जी भर पिया
तब जाके बाहर निकला
देखा लोग डरने लगे हैं
देख कर किनारा करने लगे हैं
दिल खुश हुआ
मन में गुदगुदी होने लगी
दिल में हलचल हुई कुछ
फिर कुछ हरकतें होने लगीं
अचानक एक हरकत ऐसी हो गयी ,
सच कहें , फिर हमारी ऐसी तैसी हो गयी
मेरी इस दूसरी,पर शान कि जिन्दगी में
मेरी पहली मौत हो गयी ,
वाकया कुछ यूँ हुआ था
कि वो 'V ' day  कि शाम थी
तैनात पुलिस सरेआम थी
कोशिश मेरी बस एक कली तोड़ने की थी
पर वो कली नहीं फूल थी
और ! यही हमारी भूल थी
  वो खिल चुकी थी
किसी पुलिसवाले से ही मिल चुकी थी
उसी ने हमारा ये हस्न किया था
दूसरी जिन्दगी में मेरा पहला क़त्ल किया था
मैं आज भी , अपने उन यारों को
ख्वाबों में देखता हूँ ,
ढूढने उनको मारा-मारा फिरता हूँ
वो अगर मिल जायें तो ,
उन्हें मयखाने ले जाऊंगा ,
जमकर पिलाऊंगा ,
और कहूँगा , दम हो तो

 एक कली तोड़ के दिखाओ .

गुरुवार, 20 मई 2010

सोचता हूँ कुछ लिखूं ,

सोचता हूँ कुछ लिखूं ,
मगर क्या !
तुम्हें सबसे खुबसूरत लिखूं 
नहीं ये तो सच नहीं है,
हाँ मगर ये सच है 
तुम्हारे जैसा भी कोई नहीं है 
पहले सोचा की तुम चाँद की तरह हो 
फिर उसे देखा 
मगर उसमे तो दाग है
फिर सोचा की माहताब हो
उसे छुआ 
उफ़ उसमे भी आग है
मैं आगे बढ़ा
तो लगा तुम गुलाब हो
वह भी कोमल था
तुम सा ही शीतल था
मुझे यकीं हो रह था
पर ! अगले ही पल
कुछ
हाथों में चुभ रहा था
नहीं तुम गुलाब नहीं हो सकती
हरगिज नहीं फिर ?
क्या आसमाँ से उतरी परी
वही खूबसूरती, वही भोलापन,
वही जादू है तुममें, वही चुलबुलापन
पर परी तो कल्पना है !
क्या तुम भी?
नहीं हरगिज नहीं
तुम! तुम तो मेरी हकीकत हो
या यूँ कहूँ तुम ही मेरी हकीकत हो॥
ना तो तुम चाँद हो, ना आफ़ताब हो
ना तुम परी और ना गुलाब हो
तुम बस मेरा ख्वाब हो
वो ख्वाब जो देखा है मैंने
जागते और सोते हुए
हँसतें और रोते हुए
जिन्दगी के सपने सजाते हुए
तुमको अपना बनाते हुए
सच, ये सपने बहुत खुबसूरत हैं
बस इनको तुम्हारी जरुरत है
तुम बोलो,
क्या ये सपने सच होंगे कभी
हम दोनों,
एक दुसरे के होंगे कभी ॥

गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

hindi poem competition

क्या करूँ विवेचन उन क्षण के ,
जो प्रथम मिलन के साक्षी थे।
रुक जाए यहीं पे कालचक्र ,
सब इसके ही आकांक्षी थे।।

गौरवर्ण वह चंचल मुख ,
रक्तिम अधरों से शोभित था ।
अपनी मैं क्या बात करूँ ,
स्वयं कामदेव भी उसपे मोहित था ॥

केश घटा से अविरल श्यामल ,
श्वेत कपोल कमल से कोमल थे।
जलधि समाये हो जिनमे
कुछ ऐसे उसके लोचन थे ॥

तरूणाई के सागर में
पुष्प पल्लवन प्रारम्भ हुआ था ।
वय सत्रह ही की थी बस
अभी तो यौवन का आरम्भ हुआ था॥

कटिप्रदेश था सिंह राज सा ,
चाल चली गजराज मगन थे।
दोनों अजेय थे महा रथी ,
किंतु परस्पर दुश्मन थे॥

ब्रह्मदेव की इस कृति पर किंचित
रति का मन भी रूठा था।
अपनी मैं क्या बात करूँ
मैं तो पत्थर सा बन कर बैठा था॥

देख के उस निर्मल सुन्दरता को
हृदय मेरा झंकार उठा था।
अब ये ज्ञात हुआ है तन-अंतर में
प्रीत का वो संचार हुआ था॥

पुरुषोत्तम मिश्रा
०६/०२/०२